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सीधी सच्ची बातें

भगवतीचरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :488
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3207
आईएसबीएन :9788171789948

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भगवतीचरण वर्मा की तीसरी महत्त्वपूर्ण कृति है जिसमें 1939 से 1948 तक के काल की एक सशक्त कहानी है

Sidhi Sachchi Baten

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य आकादमी द्वारा पुरस्कृत श्रेष्ठ उपन्यास ‘भूले-बिसरे चित्र’ के विषय में आलोचकों ने कहा था-‘‘एक महान कृति-भारतीय समाज और परिवार के विकास की विविध दिशाओं और रुपों का एक विराट एवं प्रभावोत्पादक चित्र....’’

‘टेढ़े-मेढ़े रास्ते’ और ‘भूले-बिसरे चित्र’ की परम्परा में ‘सीधी-सच्ची बातें’ श्री भगवतीचरण वर्मा की तीसरी महत्त्वपूर्ण कृति है जिसमें 1939 से 1948 तक के काल की एक सशक्त कहानी है, और जिसमें मानसिक संघर्ष और राजनीतिक संघर्ष का अभूतपूर्व सम्मिश्रण है।

मध्यवर्गीय परिवार का एक युवक, कुशाग्र बुद्धि और तेजस्वी, अपने अन्दरवाली नैतिकता, आस्था और विश्वास के साथ अनायास ही उस नवीन हलचल में आ पड़ता है, द्वितीय महायुद्ध, देश की स्वतंत्रता, देश का बँटवारा जिसके भाग थे।
और अंत में उसके सामने थी अन्दर की घुटन, आदर्शों के पीछे वैयक्तिक स्वार्थों और कमजोरियों का विकृत चित्र और निराशा।

‘सीधी-सच्ची बातें’ एक सशक्त कहानी है, और साथ ही सीधी-सच्ची बातें भी।

 

सीधी-सच्ची बातें
पहला खण्ड
1

 

यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी से लौटकर जगतप्रकाश ने स्टोव जलाया और चाय के लिए पानी चढ़ा दिया। यह नित्य चार बजे शाम को स्टोव जलाना और फिर चाय के लिए पानी चढ़ाना उसकी आदत है। यहीं नहीं, चाय का पानी चढ़ाकर चारपाई पर बैठ जाना और बैठकर थोड़ी देर चुपचाप सोचना, यह भी उसकी आदत है। चाय का पानी उबलने में प्रायः पन्द्रह मिनट लगते हैं और इन पन्द्रह मिनटों में उसने दिन-भर क्या किया और अगले दिन क्या करना है, इस सब पर शांतिपूर्वक सोचने की काफी फुरसत मिल जाया करती है, क्योंकि उसके पास समय का कुछ अभाव है, दिन-भर उसे व्यस्त रहना पड़ता है। वैसे समय का अभाव उसके पास न होना चाहिए था, क्योंकि उसने अर्थशास्त्र में एम० ए० पास कर लिया था और उसे एम० ए० में फर्स्ट क्लास मिला था; लेकिन जगतप्रकाश ने रिसर्च करना प्रारम्भ कर दिया था, क्योंकि उसे रिसर्च स्कॉलरशिप मिल गया था।

 जगतप्रकाश दुनिया का एक विशिष्ट अर्थशास्त्री बनना चाहता था और इसके लिए उसे अध्ययन करना था। असीमित एवं अथाह ज्ञान के क्षेत्र में उसने अपने को एक प्रकार से खो दिया था। उसके जीवन का सारा समय इसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए अर्पित था।

चारपाई पर बैठा हुआ वह सोच रहा था और उसे अचानक याद आ गया कि आज बृहस्पति है। और वैसे ही उसने दरवाज़े की ओर देखा। दरवाज़े से कुछ दूर हटकर कोने में पड़े हुए पत्र पर उसकी नज़र पड़ी, एक हल्की मुस्कराहट के साथ उठकर उसने वह पत्र उठाया। नियमित बृहस्पतिवार को दोपहर की डाक उसे अनुराधा का पत्र मिलता था। अगर उसमें कभी कोई व्यक्तिक्रम हो जाता था तो डाक-विभाग की लापरवाही के कारण, अनुराधा के कारण नहीं। उसके अन्दर, किसी भी तरह का उतावलापन नहीं था उसके उठकर पत्र उठाने में एक शान्त, स्निग्ध, पुलक-भर था, जैसे थोड़ी देर के लिए स्वयं अनुराधा आ गयी हो उसके सामने, उससे बात करने के लिए, उस पर अपनी ममता उँड़ेलने के लिए।

अनुराधा जगतप्रकाश की बड़ी बहन थी, और अनुराधा के सिवा उसका कोई आत्मीय भी तो नहीं था दुनिया में। और अनुराधा का भी सिवाय जगतप्रकाश के और कोई नहीं था। बस्ती ज़िले के एक छोटे-से गाँव महोना में अनुराधा रहती थी, नितान्त अकेली। पन्द्रह साल पहले जब विधवा होकर वह महोना में अपने पिता के पास लौटी थी, उसकी अवस्था प्रायः अठारह साल की थी। केवल एक साल उसने वैवाहिक सुख या दुख-उसे जो भी कहा जाए-भोगा था, और जब उसके विधवा होने के छः महीने बाद उसके ससुरालवालों ने उसे अपने यहाँ से एक तरह से निकाल-कर पिता के घर भेजा था। तब उसके मन में न-किसी तरह का विषाद था, न किसी तरह की कसक। उसके पिता सत्यप्रकाश महोना में सरकारी मिडिल स्कूल में आध्यापक थे, साथ ही उनकी बारह बीघे की खेती भी थी। खेती उन्होंने बटाई पर उठा रखी थी। पिता के घर आते ही अनुराध ने खेती अपने हाथ में ले ली थी। अनुराधा के महोना में आने के बाद सत्यप्रकाश की आर्थिक अवस्था अच्छी हो गई थी, लेकिन बेटी के वैधव्य तथा बेटी के प्रति उसके ससुराल वालों के दुर्व्यवहार से उसकी माता को गहरा आघात लगा और लड़की के घर आने के एक साल के अन्दर ही अनुराधा की माता की मृत्यु हो गयी।

जगतप्रकाश की माता का स्थान अब उसकी बहन अनुराधा ने ले लिया था। गेंहुए रंग की लम्बी-सी और तगड़ी-सी स्त्री जो सुन्दर तो किसी हालत में नहीं कही जा सकती थी, एक साल के अन्दर वज्र की तरह कठोर बन गयी थी। उसके शरीर में कठोरता थी, उसकी वाणी में कठोरता थी, उसके मुँख पर कठोरता थी उसकी आँखों में कठोरता थी-और एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि उसके मन में कठोरता थी- जैसे जीवन उसके लिए अनवरत संघर्ष रहा हो। रोज सुबह चार बजे उठती थी और रात के दस बजे तक वह काम करती रहती थी। गांववाले उससे डरते थे, उसके पिता तक उससे डरते थे। अगर कोई उससे नहीं डरता था तो वह जगतप्रकाश। और अगर सच कहा जाये तो वह स्वयं जगतप्रकाश से बेतरह डरती थी। उसकी ममता का एकमात्र केन्द्र-बिन्दु जगतप्रकाश था, जगतप्रकाश की सुख-सुविधा ही उसकी समस्त सुख-सुविधा थी।  

जगतप्रकाश में बुद्धि थी, यह बुद्धि प्रतिभा कही जा सकती थी। हिन्दी मिडिल की परीक्षा में उसे प्रदेश में दूसरा स्थान मिला, और आगे पढ़ने के लिए सत्यप्रकाश ने उसे बस्ती के हाईस्कूल में भरती करवा दिया। वहां वह बोर्डिंग हाउस में रहता था, जिससे सत्यप्रकाश का खर्च कुछ बढ़ गया था। लेकिन अनुराधा के कारण उनकी आय भी तो बढ़ गयी थी। जगतप्रकाश को छात्रवृत्ति भी मिलती थी।

जिस साल जगतप्रकाश ने हाईस्कूल की परीक्षा दी, उस साल की गर्मियों में हैजे का एक भयानक प्रकोप पूर्वी उत्तर में आया। सत्यप्रकाश दूसरों को बचाने के प्रयत्न में स्वयं हैजे के शिकार हुए, और जगतप्रकाश स्तब्ध-सा रह गया अपने पिता की इस आकस्मिक मृत्यु से। लेकिन अनुराधा पर मानो पिता की मृत्यु का कोई खास असर न पड़ा हो। अपने छोटे भाई से उसने पिता का क्रिया-कर्म करवाया, पूरी तौर से उसने पिता के अन्त्येष्टि-संस्कार पर खर्च भी किया। चौदह वर्ष का बालक जगतप्रकाश भारी मन और उदास भाव से मशीन की भाँति सब कुछ कर रहा था। उनकी समझ में न आ रहा था कि यह सब क्यों हो गया, कैसे हो गया। चौबीस-पच्चीस वर्ष की अनुराधा और भी अधिक कठोर बन गयी थी। उसकी आँखें सूखी थीं, उसके दाँत भिचें हुए थे। जो कुछ सामने आता है उसे स्वीकार करना पड़ेगा, हँसकर या रोकर उससे कोई छुटकारा नहीं। एक रास्ता बन्द हुआ तो दूसरा रास्ता बनाना पड़ेगा। जब तक वह जिन्दा है तब तक वह हार नहीं मानेगी।

जून के अन्तिम सप्ताह में हाई स्कूल का परिणाम-फल निकला और जगतप्रकाश को प्रदेश में चौथा स्थान मिला। परीक्षा-फल पाकर जगतप्रकाश के मन में किसी प्रकार कि प्रसनन्ता नहीं हुई, जैसे उसके मन में किसी तरह का उत्साह ही न रह गया हो। एक महीना पहले ही तो उसके पिता की मृत्यु हुई थी। लेकिन अनुराधा का मन अभिमान से भर गया, एक अजीब तरह का उल्लास और पुलक उसमें जाग उठा था। उसने देवी-देवाताओं पर प्रसाद चढ़ाया, और रात के समय अपने भाई के पास बैठकर जगतप्रकाश के आगे पढ़ने की योजना बनायी। वह जगतप्रकाश को सबसे ऊँचे अफसर के रूप में देखना चाहती थी  जिससे सब लोग डरें, जिसके आगे दुनिया झुके। अनुराधा ने सुन रखा था कि ऊँची शिक्षा का सबसे बड़ा केन्द्र इलाहाबाद है, और अनुराधा ने जगत-प्रकाश से आग्रह किया कि वह इलाहाबाद जाकर पढ़े। उसे हाई स्कूल की छात्रवृत्ति मिलेगी, बाकी खर्चा वह किसी-न-किसी तरह नियमित रूप से भेजती रहेगी। जगतप्रकाश ने बहुत आनाकानी की, लेकिन अनुराधा अपने संकल्प पर जिद पकड़ गयी। अनुराधा ने अब उसके पिता का स्थान भी तो ले लिया था।

जगतप्रकाश में उसके पिता की सात्विक प्रवृत्तियाँ थीं। वह सच्चरित्र था और मितव्ययी भी। एक हफ्ते बाद ही इलाहाबाद चला गया और गवर्नमेंट कालेज में भरती हो गया। अनुराधा उसे नियमित रूप से बीस रुपया महीना मनीआर्डर से भेज देती थी और छात्रवृत्ति के रुपयों की सहायता से उसका काम आसानी से चल जाता था।
इण्डरमीडिएट में जगतप्रकाश को दूसरा स्थान मिला और उसने प्रयाग विश्व-विद्यालय में प्रवेश किया। वहाँ भी उसे छात्रवृत्ति मिली। बी०ए० में वह प्रथम स्थान आया और इसके बाद अर्थशास्त्र लेकर प्रथम क्षेणी में एम० ए० पास किया। उसके प्रोफेसर ने उसे रिसर्च स्कॉलरशिप दिलवाकर रिसर्च विभाग में ले लिया, क्योंकि उस समय अर्थशास्त्र विभाग में प्राध्यापक की कोई जगह खाली नहीं थी। दो साल बाद जब जगह खाली होगी, वह उसे प्राध्यापक बना लेंगे। जब तक उसकी डाक्टरेट के लिए थीसिज़ भी तैयार हो जाएगी।

 
अगले साल उसकी थीसिज़ पूरी हो जाएगी और डेढ़ साल बाद-यानी अगस्त सन् 1940 तक उसको यूनिवर्सिटी में नौकरी मिल जायेगी। थीसिज़ के लिए खोज में उसका मन लग गया था। वह किसी पाश्चात्य विश्वविद्यालय में जाकर और अधिक ठोस काम करना चाहता था। लोगों ने उसे बतलाया कि अर्थशास्त्र में बर्लिन विश्व-विद्यालय अद्वितीय है। अपने शोध-कार्य के साथ-साथ वह जर्मन और फ्रेंच भाषाएं भी सीख रहा था। वह अच्छा भाषाशास्त्री न था, इसलिए इन दो भाषाओं को सीखने में उसे काफी परिश्रम भी करना पड़ता था।

जगतप्रकाश ने अनुराधा का पत्र खोला और उसने वह पत्र पढ़ना आरम्भ किया। उस समय उसे लग रहा था जैसे उसकी बड़ी बहन अनुराधा उसके सामने खड़ी हुई उससे बातें कर रही है नपे-तुले शब्दों में। इस बार आम में अच्छा बौर आया है दो गाय और बढ़ा ली हैं उसने। मकान के पीछे उसने एक पक्की कोठरी  बनवाकर छवा ली है, बड़ी ठण्डी और आरामदेह रहेगी वह गर्मियों में। इस बार उसे गर्मियों में महोना आना ही पड़ेगा, उसे महोना में किसी तरह का कष्ट नहीं होगा। महोना में रहकर वह लिख-पढ़ सकता है। अगर उसे रुपयों की ज़रूरत हो तो वह लिख दे, अनुराधा उसे रुपये भेज देगी। और जगतप्रकाश जो अपनी छात्रवृत्ति बचाकर उसे पच्चीस रुपया महीना भेजता है वे वैसे-के-वैसे रखे हैं। आगे से वह घर में रुपया न भेजे, घी-दूध, फलों पर वह भी रुपया खर्च करे, अच्छे-अच्छे कपड़े बनवा ले आदि-आदि।

जगतप्रकाश पत्र पढ़ता जाता और मुस्कराता जाता था, ठीक उसी तरह जिस तरह अनुराधा का उपदेश सुनने के समय वह मुसकराया करता था। तभी उसका ध्यान स्टोव पर चढ़े हुए पानी पर गया जो उबल रहा था। अनुराधा का पत्र उसने तकिए के नीचे रख दिया, रात के समय वह पत्र का उत्तर लिखेगा। जिस दिन उसे अनुराधा का पत्र मिलता था, उसी दिन रात के समय वह उस पत्र का उत्तर लिख देता था, नियमित रूप से। और फिर उसने चाय बनाकर पी। चाय का प्याला मेज़ पर रखकर उसने घड़ी देखी-चार बज रहे थे।

मौसम काफी सुहावना था, सर्दी समाप्त हो गयी थी, लेकिन गर्मी पड़नी अभी आरम्भ नहीं हुई थी। उस दिन दोपहर के समय ही उसे अपनी छात्रवृत्ति मिली थी, मार्च की पाँचवीं तारीख थी न ! और वह सोच रहा था कि बाजार जाकर अपने लिए गर्मी के कपड़े खरीदकर सिलने को दे दे। शाम के समय सर्दी बढ़ जाती है, सूती कपड़े उतारकर वह ऊनी कपड़े पहनने लगा। तभी उसके कमरे का दरवाज़ा खुला। चौंककर उसने दरवाज़े की ओर देखा कमलाकान्त खड़ा मुस्करा रहा था। उसे कमलाकान्त का स्वर सुनायी पड़ा, ‘‘तो चाय पी चुके ! बड़ी जल्दी की !’’

‘‘जल्दी तो नहीं की, तुम्ही को देर हो गयी है आने में। तुम्हारे लिए चाय टी पाट में रखी है।’’ उसने टी पाट की ओर इशारा किया, ‘‘चाय बना लो, तब तक मैं कपड़े बदल लूँ। चौक जाना है कपड़े खरीदने के लिए। चलो, तुम्हारा कोई दूसरा कार्यक्रम तो नहीं है ?’’ मुझे भी चौक चलकर खादी भण्डार से अपने लिए दो सेट खादी के कपड़े खरीदने हैं।’’

आश्चर्य के साथ जगतप्रकाश ने कमलाकान्त को देखा, ‘‘खादी के कपड़ों के दो सेट तुम अपने लिए लोगे ? दिमाग तो ठीक है, आखिर बात क्या है ?’’

कमलाकान्त हँस पड़ा, ‘‘न कोई खास बात है और न मेरा दिमाग खराब है। बात यह है कि बहुत दिनों से सोच रहा था कि खादी पहनना शुरू कर दूँ मौके की तलाश में था कि कब पुण्य कार्य आरम्भ किया जाये। तो वह मौका भी आखिर आ पहुँचा।’’ फिर किंचित् गम्भीर होकर वह बोला, ‘‘आज 5 मार्च है न ! 7 मार्च से त्रिपुरी कांग्रेस का सेशन आरम्भ हो रहा है। वह कल रात की गाड़ी से जबलपुर जाना है। वहाँ जाने के लिए कपड़े लेने हैं। तो मुझे तुमसे कहना है कि तुम भी मेरे साथ जबलपुर चलो।’’

जगतप्रकाश ने उत्तर दिया, ‘‘तुम तो जानते हो कि मुझे राजनीति में जरा भी रुचि नहीं है। त्रिपुरी जाने का मतलब है, समय की बरबादी, रुपयों की बरबादी। तो मुझे तो बख्शो।’’
चाय का प्याला अपने होठों में लगाकर कमलाकान्त  कुछ क्षणों तक जगतप्रकाश को देखता रहा। चाय खत्म करके बोला, ‘‘समय की बरबादी, रुपयों की बरबादी। और इन दो बरबादियों के ऊपर दो बरबादियाँ और हैं, जीवन की बरबादी, मनुष्य की बरबादी। चारों तरफ बरबादी-ही-बरबादी दीखेगी। इस कमरे में बन्द, किताबों से चिपके हुए, जीवन और गति से दूर नहीं, विमुख। पाता नहीं इसे तुम अपने अन्दर वाले मनुष्य की बरबादी कहोगे या नहीं, तुम इसे अपने जीवन की बरबादी समझोगे या नहीं ?’’
 
उत्तर जैसे जगतप्रकाश के पास तैयार था, ‘‘जो चीज मेरे जीवन में नहीं है। उसमें रुचि लेना; मैं तो इसे जीवन की बरबादी समझता हूँ। राजनीति के मायाजाल में फँसकर मैं अपने मार्ग से हट जाऊँ अपने जीवन का लक्ष्य छोड़ दूँ यह तो मुझे युक्तिसंगत नहीं दीखता, यह करना मेरे जीवन की बरबादी का रास्ता अपनाना होगा। नहीं कमलाकान्त मैं जबलपुर नहीं जाऊँगा; मुझे अपने जीवन की तैयारी करनी है। मैंने अपना एक रास्ता बना लिया है, उसी रास्ते पर चलकर मुझे सफलता प्राप्त करनी है।’’


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